Sunday, October 5, 2008

क्रिकेट और एक सोच


खेलो क्रिकेट
पेलो क्रिकेट,
बैठ निठल्ले
झेलों क्रिकेट।
हर बारी पिट जाए
तो क्या ?
बार-बार तुम
ठेलो क्रिकेट।
हार -हार कर
फिर हारेगें,
लेकिन भैया
छोड़ ना क्रिकेट।
इसके लिए सारी
जनता पागल,
देश को कभी कुछ
हुआ ना हासिल,
फिर भी प्यारे
खेल तू क्रिकेट।
तुझे गुलामी की
निशानी
अंग्रेजों से मिली है क्रिकेट।
राट्रीय भाषा तू
छोड़ के बैठा
पसंद करे
अग्रेजी गिट पिट।
खेल तू क्रिकेट।
खेल तू क्रिकेट।
बेशर्मी से
खेल तू क्रिकेट।
देश का धन औ’
समय गँवा कर।
नेताओ की
जेबें भर, भर।
जनता को
करने दे टर- टर।
मगंन रहो
बस खेलो क्रिकेट।
खेलो क्रिकेट।
खेलो क्रिकेट।

6 टिप्पणियाँ:

वर्षा said...

हां क्रिकेट की किटकिट जरूरत से ज्यादा हो गई है। लेकिन इसे अंग्रेजों की ग़ुलामी से जोड़ना मेरे निजी विचार में ठीक नहीं।

राज भाटिय़ा said...

सच को लाखो बार भी नाकारो वह सच ही रहेगा...
आप ने बिलकुल सच लिखा है...
तुझे गुलामी की
निशानी
अंग्रेजों से मिली है क्रिकेट।
राट्रीय भाषा तू
छोड़ के बैठा
पसंद करे
अग्रेजी गिट पिट।
ओर यह एक सच्चा सच है वर्षा जी

राज भाटिय़ा said...

परमजीत जी इस सुन्दर सच के लिये आप क धन्यवाद

दिलीप कवठेकर said...

पहली बार आपकी कविता पढ रहा हूं.

सरल, और छोटे बहर की होने से पढने में तरलता लिये हुए है, जिससे रुचिकर और Lucid है. व्यंग का Content भी सारगर्भित Substance और चुभन लिये हुए है, इसलिये अपना उद्देश्य पूर्ण करता है.

आते रहना पड़ेगा..

वन्दना अवस्थी दुबे said...

एक्दम सच...ये क्रिकेट तो मुझे भी नहीं सुहाता.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

एक्दम सच...ये क्रिकेट तो मुझे भी नहीं सुहाता.

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